सोमवार, 9 जून 2008

अतिथि संपादक की कलम से....


लघुकथा अपने विकास-क्रम में आगे चलकर वही नहीं रही जो हमारे पुराणों, मिथकों, दंतकथाओं आदि में समाहित हैं जिनमें दिव्य व्यवहारों यानी ईश्वर की ओर से मनुष्य के प्रति किये गये आचरण का वर्णन मिलता है। यह वर्णन व्यवहारों को उचित भी ठहराता है। यही प्रवृत्ति प्राय: विश्व-साहित्य में मिलती है। वैसे पूरे विश्व साहित्य को पंचतंत्र और अरेबियन नाइट्स के किस्सों ने अनुवादो के जरिये प्रत्यक्ष रूप से भी प्रभावित किया है।

आप सबों को आश्चर्य होगा कि अमेरिका, यूरोप और भारत में आधुनिक कहानी-विधा का आरंभ लगभग एक ही साथ उन्नीसवीं सदी के मध्य में हुआ। रूस में भी गागोल की कहानियाँ 1842 तक छपी थी। जो आधुनिक रूसी कहानी के आरंभकर्ता माने गये। तुर्गनेव का कहना था कि हम सब कहानीकार गोगोल के ओवरकोट में से निकले हैं । ओवर कोट गोगोल की प्रसिद्ध कहानी का नाम है। अमेरिका में 1850 के बीच कहानी स्वतंत्र विधा बन चुकी थी और लघुकथा जैसे संज्ञाओं का त्याग कर सक्रिय लेखन में लघुकथाकार सक्रिय रहे । इन रचनाओं में जीवन के सामान्य अनुभवों को यथार्थ में चित्रण करने का आग्रह था। यथार्थ जीवन की प्रवृति के पीछे ही 1858 में फोटोग्राफी जैसे यंत्र तैयार किये गये जिसने जीवन में वास्तविकता के महत्व को बढा दिया। लघुकथा में विश्वसनीयता लाने के लिए वास्तविक चित्रण को जरूरी समझा गया।

भारत में कथाओं, लघुकथाओं को कहने की बहुत ही बेहतरीन परंपरा थी। वाचिक परंपरा कथा वाचक में अपना स्वयं का व्यतित्व और कहने की रोचक शैली के चलते कथा या लघुकथा में सच्चाई और विश्वसनीयता आ जाती थी। बाद में कथाएँ, लघुकथाएँ छापे खाने के युग में विधा का विस्तार की । लघुकथा की अर्न्तवस्तु और बाहय वस्तु बाजारवाद की जरूरतों से भी प्रभावित होती रही हैं। ज्यादातर पत्र-पत्रिकाएँ ही लघुकथाओं को प्रायोजित करती हैं। एक ओर ये पत्रिकाएं लघुकथा की मांग पैदा करती हैं तो दूसरी ओर उन्हीं से उसकी पूर्ति भी। ऐसे में लघुकथा से सतहीपन और फार्मूले बाजी को भी बढ़ावा मिला। विश्व साहित्य में चेखव, ओ हेनरी, मोपासां, गोर्की, लूसून, माधवराव सप्रे, पदुमलाल पुन्ना लाल बख्शी, प्रेमचंद्र,सॉमरसेट-मॉम, काफ्फा, नुट हैंसम ,कन्फ्यूशियस, कार्ल सैंडबर्ग, यानुश ओशेका काजीमेज, ओर्लोस, सआदतहसन मंटो, होराशिया क्वीरोजा, तुर्गनेव, खलील जिब्रान, ऑस्कर वाइल्ड, मार्कट्बेन, शेक्सपियर,कार्ल सैंडबर्ग जैसे महान लघुकथाकारों ने दिखा दिया हैं कि इस विधा में जीवन और परिवेश के अंर्तविरोधों को उखाड़ने की पर्याप्त ताकत और उर्जा हैं। लघुकथा अत्यंत गंभीर प्रभाव क्षमता रखती हैं। इसमें जटीलता और विस्तार भले न हो परंतु सार्थकता प्रदान करती हैं। पिछले सौ वर्षो में लघुकथा के कई संरचनागत तत्वों की पहचान हुई हैं। सभी विद्वान मानने लगे हैं कि लघुकथा का लघुकथापन हैं उसका कथा तत्व ।

आठवें नौवें दशक में छत्तीसगढ़ अंचल के लघुकथा कारों के योगदान को झुठलाया नहीं जा सकता हैं। उन दिनों नारायणलाल परमार, विभु खरे, आचार्य सरोज द्विवेदी, रवीन्द्र कंचन, डा.राजेन्द्र सोनी, डा.महेन्द्र ठाकुर, चेतन आर्य,जय प्रकाश मानस, भावसिंह हिरवानी देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर छपते रहे हैं। 1980 में लघुकथा लेखन को आंदोलित करने के लिए डॉ. राजेन्द्र सोनी ने अपने पिताश्री स्व. रामलालजी सोनी की स्मृति में लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन शुरू किये। प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय लघुकथाकारों को पुरस्कृत भी किया गया। यह आयोजन देश की एकमात्र लघुकथा के लिए समर्पित पत्रिका लघुआघात इन्दौर म.प्र. के माध्यम से होती थी।

देश के प्रमुख लघुक़थाकारों की श्रेणी में आने वाले विक्रम सोनी लघुआघात के संपादक थे। यह पत्रिका पहले आघात फिर लघुआघात के नाम से प्रकाशित हुई जो विगत दो दशक तक प्रकाशित होती रही हैं। ऐसे प्रतियोगिता के माध्यम से सैकड़ों नये रचनाकार सामने आये, जिनकी लेखनी में दमखम था। आज वे देश के प्रतिष्ठित लघुकथाकारों की श्रेणी में आते हैं ।

डॉ. महेन्द्र कुमार ठाकुर के संयोजन में 1982 में एक ऐतिहासिक सम्मेलन लघुकथा पर केंद्रित सुदुर जगदलपुर जैसे पिछड़े अंचल में किया गया था जिसमें लघृुकथा पोस्टर प्रदर्शनी,लघुकथा पाठ एवं व्याख्यान रखा गया था। विक्रम सोनी एवं रामेश्वर शुक्ल अंचल की प्रमुख भागीदारी र्री। उस आयोजन को आज भी देश के तमाम लघुकथा कार नहीं भूल पाये हैं। उन्हीं दिनों डॉ. राजेन्द्र सोनी एवं मोह.मोईन्नुद्दीन अतहर के संपादन में नवें दशक की लघुकथाएं नाम से संकलन सामने आई जिसमें जबलपुर एवं छत्तीसगढ़ अंचल के रचनाकार शामिल थें। जिनमें स्वप्ेश्वर (लतीफ धोंधी),विश्वनाथ जोशी, राजेश चौकसे, अरूण कुमार शर्मा, विजय कृष्ण ठाकुर, मोह. मोईन्नुद्दीन , सुधीर कुमार सोनी, कुंवर प्रेमिल, श्रीमती आभा झा, गिरीश पंकज, डॉ. महेन्द्र कुमार ठाकुर, श्रीराम ठाकुर दादा, गुरनाम सिंह रीहल एवं डॉ. राजेन्द्र सोनी जैसे प्रमुख हस्ताक्षर शामिल हैं। यह सब देख कर मुझे विश्वास हो गया हैं कि छत्तीसगढ़ के लघकथाकार कहीं भी थिरके नहीं हैं।

लघुकथा पर केन्द्रित दिनांक 16 एवं 17 फरवरी को राजधानी में आयोजित अंतरराष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन दीर्घकालीन खामोशी को अवश्य गतिमान करेगी। लघुकथा पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हो और राजधानी से लगभग तीन दशक से प्रकाशित हो रही पत्रिका पहचान-यात्रा त्रैमासिक ऐसे समय में खामोश रहे कहाँ सभव है? विगत दो वर्षो की खामोशी के बाद साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था सृजन-सम्मान रायपुर का यह आयोजन पूरे विश्व में ऐतिहासिक सिद्ध होगा मेरा विश्वास है ।

इस अवसर पर पहचान-यात्रा का विश्व लघुकथा अंक आपको सौंपते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता हो रही हैं। मैं वर्ष-वैभव के संपादक श्री देवेन्द्र जैन एवं अन्य लघुकथाकारों को हदय से धन्यवाद देना चाहूँगा, जो समयानुकुल सामाग्री प्रेषित किये। यह अंक आपको कैसा लगा। अपनी प्रतिक्रिया हम तक भेजने का कष्ट करेंगे । बस इतना ही.....

0 जयंत कुमार थोरात
11 फरवरी बसंत पंचमी 2008

रविवार, 8 जून 2008

लघुकथा का हिन्दी संसार

संपादकीय


लघुकथा की इतिहास यात्रा पर विचार करने पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि लघुकथा नई विधा नहीं है। इसका अस्तित्व प्राचीनकाल में भी था। प्राचीन साहित्य में लघुकथाओं का वर्चस्व रहा है। इसका प्रारंभिक अस्तित्व ऋग्वेद की उन कथाओं में देखा जा सकता है, जिन्हें हम यम -यमी पुरूरवा-उर्वशी पितर पूजा आदि नामों से जानते हैं। इसके अलावा पंचतंत्र हितोपदेश तथा जातक कथाओं में भी इसके स्वरूप का आभाष होता है। वैदिक लघुकथाएं बौद्ध जैन तथा महाभारत की लघुकथाएं भी इसकी उत्पत्ति के स्त्रोत हैं।

लघुकथा की ऐतिहासिकता को प्राचीन रूप एवं नवीन रूप में बांटा जा सकता है। प्राचीन काल की बोध कथाओं को अपने समय की लघुकथाओं की संज्ञा दी जा सकती है। इसका स्वरूप आधुनिक लघुकथाओं से एकदम भिन्न था किंतु कुछ मूलभूत तत्वों के कारण साम्य पाया जाता है, जैसे उददेश्य-प्राचीन समय की बोध कथाओं का कुछ न कुछ अवश्य रहता था यह भले ही आदर्शात्मक या नीतिगत हो। जीवन के दृष्टांतों को लेकर यह मानव समाज को सही राह चुनने का अवसर देती थी।

आज परिस्थितियां बिल्कुल विपरीत हैं, भौतिकतावादी ,सुख-संपन्नता व सुविधाओं के बाद आज लोगों के पास कमी है तो सिर्फ समय की आज लोगों के पास पठन-चिंतन के लिये नितांत समयाभाव है। इसलिए आज पाठक वर्ग कुछ ऐसा चाहता है जो चलते -फिरते उठते-बैठते बातचीत करते भी बीच-बीच के अल्प समय में पढ़ा जा सके। जो छोटा हो किंतु बहुत कुछ दे जाएं और इस मांग की पूर्ति करने में आज की लघुकथा पूर्ण सक्षम है।

प्राचीन काल में लघुकथाएँ ही साहित्य की एक मात्र विधा थी और सम्प्रेषण का माध्यम भी। इस काल की लघुकथा पौराणिक साहित्य को समृद्धि प्रदान करती है। अत: यह स्पष्टत: कहा जा सकता है कि आज की लघुकथा कोई नई उत्पत्ती नहीं है इसका जन्म तो वैदिक युग में ही हो चुका था। किंतु इसके स्वरूप में समय व कालचक्र के साथ-साथ परिवर्तन होता रहा है।

मध्यकाल में लघुकथा की दृष्टि से अभाव का काल रहा इस युग में लघुकथा का विकास अवरूद्ध हो गया था। इस काल में काव्य का उत्थान हुआ। चारण भाट कवियों द्वारा वीरत्व जगाने वाले काव्य सैनिकों को एवं राजाओं को प्रशंसा के गीत सुनाये जाते। इस काल में गद्य साहित्य की लगभग उपेक्षा ही कर दी गई थी सूर तुलसी कबीर जायसी जैसे श्रेष्ठ कवियों का उदय हुआ। यह काल तो कविता का स्वर्ण युग कहलाता है। भक्तिकाल एवं रीतिकाल के प्रभाव से काव्य तो उत्कर्ष काल पर पहुँच गया किंतु लघुकथा के कहीं दर्शन नहीं हुए।

मध्यकाल में कुछ मुद्रित ग्रंथों की उपलब्धि हुइ, जैसे मर्सिया, सिंहासन बत्तीसी व माधोनल,चौरासी वैष्णवों की वार्ता पुस्तक प्रकाशित हुई । जिसमें लघुकथा की दृष्टि से सिंहासन बत्तीसी को ही लिया जा सकता है। कुछ पत्र-पत्रिकाएं भी प्रकाश में आई, जिसमें सरस्वती चाँद मतवाला ब्राहम्ण आदि लेकिन इन पत्र - पत्रिकाओं ने लघुकथा के महत्व को नकार दिया, किंतु हिंदी साहित्य की अन्य विद्याओं में समृद्धि हुई।

1900 से 1947 तक का समय हिंदी लघुकथा के प्रारंभिक युग के रूप में जाना जाता है। इस काल की लघुकथाएं से प्रत्येक दृष्टिकोण में भिन्न है। इसके काव्य शैली शिल्प रचना प्रक्रिया व उद्देश्य सभी में आमूलचूल परिवर्तन दिखाई पड़ते है। आज कथा मनोरंजन के लिए नहीं अपितु यथार्थ-दर्शन के लिए लिखी जा रही है। लघुकथा की प्रासंगिकता युगबोध से जुड़ी है। सन् 1901 में माधवराव सप्रे की एक टोकरी भर मिट्टी छत्तीसगढ़ मित्र पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। जो बाद में क्रमश: सारिका व पहली काहनी पुस्तक में कमलेश्वर के संपादकत्व में प्रकाशित हुई। 1915 में छबीले लाल गोस्वामी की लघुकथा विमाता सरस्वती पत्रिका में छपी थी, जिसमें शब्दों की अधिकता होने के कारण लघुकथा की श्रेणी में कुछ विद्वानों ने नहीं रखा। 1916 में पदुमलाल पुन्ना लाल बख्शी की लघुकथा झलमला प्रकाशित हुई। यह हिंदी की प्रथम जीवंत लघुकथा मानी जाती है इसमें प्रतीकात्मकता है और कथ्य की सहज भंगिमा पायी गई है।

छत्तीसगढ़ प्रदेश में इन दोनों कथाओं के मिल जाने बाद, विद्वानों ने कहानी और लघुकथा में अंतर ढुढ़ना शुरू कर दिया। जो भी हो आज तक के इतिहार में जितना भी उपलब्ध हुआ है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि लघुकथा का गढ़ छत्तीसगढ़ ही है।

देखें हिन्दी की पहली लघुकथा-

एक टोकरी भर मिट्टी
किसी श्रीमान् जमींदार के महल के पास एकगरीब अनाथ विधवा की झोपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोपड़ी तक बढ़ाने की अच्छा हुई। विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोपड़ी हटा लें, पर वह तो कई जमाने से वही बसी थी। उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पांच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थी। अब यह उसकी पोती इस वृद्धकाल में एक मात्र आधार थी। जब कभी उसे अपनी पूर्व स्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट-फूटकर रोने लगती थी, और जबसे उसने अपने श्रीमान् पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना, तब से वह मृत प्राय हो गयी थी। उस झोपड़ी में उसका मन लग गया था कि बिना मरे वहां से वह निकलना ही नहीं चाहती थी। श्रीमान् के सब प्रयत्न निष्फल हुए। तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरमकर उन्होंने अदालत से झोपड़ी पर अपना कब्जा कर लिया और विधवा को वहां से निकाल दिया। विचारी अनाथ तो थी ही, पास पड़ोंस में कही जाकर रहने लगी।

एक दिन श्रीमान् उस झोपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि इतने में वह विधवा हाथ में एक टोकरा लेकर वहां पहुंची। श्रीमान् ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहां से हटा दो। पर वह गिड़-गिड़ाकर बोली कि महाराजा अब तो यह झोपड़ी तुम्हारी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूं। महाराज क्षमा करें तो एक विनती है। जमींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा कि जब से यह झोपड़ी छुटी है तब से , मेरी पोती ने खाना -पीना छोड़ दिया है।मैंने बहुत कुछ समझाया पर यह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल, वही रोटी खाऊंगी। अब मैंने यह सोचा है कि इस झोपड़ी में से टोकरी भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्हा बना कर रोटी पकाऊंगी इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले जाऊं। श्रीमान् ने आज्ञा दे दी।

विधवा झोपड़ी के भीतर गयी। वहां जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मरण हुआ और उसकी ऑंखो से आंसू की धार बहने लगी। अपने आंतरिक दु:ख को किसी तरह सम्हालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भरली और हाथ से उठा कर बाहर ले आयी। फिर हाथ जोड़ कर श्रीमान् से प्रार्थना करने लगी कि महाराजा कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगाइए, जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूँ। जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए, पर जब वह बार-बार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके भी मन में कुछ दया आ गयी। किसी नौकर से न कहकर आपही स्वयं टोकरी उठाने आगे बढ़े। ज्यों ही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्यों ही देखा कि यह काम उनकी शक्ति के बाहर है। फिर तो उन्होंने अपनी सब ताकत लगा टोकरी को उठाना चाहा पर जिस स्थान पर टोकरी रखी थी वहाँ से वह एक हाथ भर ऊँची न हुई। वह लज्जित होकर कहने लगे नहीं यह टोकरी हमसे न उठायी जावेगी।
यह सुनकर विधवा ने कहा महाराज । नाराज न हों, आप से तो एक टोकरी भर मिट्टी नहीं उठायी जाती और इस झोपड़ी में तो हजारों टोकरियां मिट्टी पड़ी है। उसका भार आप जन्म भर क्यों उठा सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए।

जमींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्य भूल गये थे, पर विधवा के उपर्युक्त वचन सुनते ही उनकी आंखे खुल गयीं। कृत कर्म का पश्चाताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा मांगी और उसकी झोपड़ी वापस दे दी।

फिर तो विकासोन्मुख युग की शुरूआत हो गई बूढ़ा व्यापारी जगदीश चन्द्र मिश्र 1919-20, 1924 में शिवपूजन सहाय की एक अदभूत आचार्य रामचन्द्र श्रीवास्तव की बेबी , 1926 में जयशंकर प्रसाद की कलावती की सीख, 1928 में माखन लाल चतुर्वेदी की बिल्ली और बुखार 1929 में कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर की सेठजी और सलाम, 1930 में सुदर्शन की दो परमेश्वर प्रसाद की गूदड़ साई उपेन्द्र नाथ अश्क जादूगरनी, 1933 में भारतेन्दु जी की कुछ आप बीती कुछ जग बीती, भृंग तुपकरी जिदंगी क्या है। कन्हैयालाल मिश्र की भोजन या शत्रु उपेन्द्र नाथ की अश्क की केवल जाति के लिए राधारी सिंह दिनकर की हत्यारा 1938 में विष्णु प्रभाकर की सार्थकता जगदम्बा प्रसाद त्यागी की विधवा का सुहाग, रामनारायण उपाध्याय की आटा और सीमेंट 1940 के आसपास रामप्रसाद रावी ने मेरे कथा गुरू का कहना है नाम से तत्कालीन लघुकथा को नया आयाम दिया। 1950 से आज तक की लघुकथाएँ आधुनिक लघुकथा के दौर में आती है।

छठवें दशक की लघुकथा में आदर्शपरक व्यंजना देखी गई है। वर्तमान जीवन में पायी जाने वाली विसंगतियों नाराजगी पारिवारिक रिश्तों की व्यंजना व्यवस्था आदि को लेकर लघुकथा लिखी गई। अनेक विशिष्ट संग्रही आकाश के तारे धरती के फूल अनजाने जाने पहचाने रोज की कहानी आदि का प्रकाश हुआ। धीरे-धीरे लघुकथा संकलनो की रफ्तार बढ़ने लगी कुछ ऐसी भी पुस्तक सामने आयी जिनमें लघुकथा को अन्य विधाओं के साथ पृथक विधा मानकर छापा गया इस दशक में खुला आकाश मेरे पंख त्रिबिधा विकृत रेखाएं धुँधले चित्र आदि प्रमुख रचनाएँ सामने आई।

आधुनिक लघुकथा का जन्म सातवें दशक के मध्य से माना जाता है 1961 से 1970 तक का समय लघुकथाओं के विकास में कोई खास महत्व नहीं रखता। यद्यपि कुछ छुटपुट रचनाएँ एवं दो चार संग्रह ही प्रकाश में आएं। जा को सुख चाहतो लियो नरेश चन्द्र मिश्र फसलों की शरारत रामनारायण उपाध्याय स्वाति बूंद मुक्तेश आदि।

शताब्दी के आठवें दशक में लघुकथाएँ खुब लिखी गई। इसी काल में लघुकथा पूर्ण अस्तित्व में आया और स्वतंन्त्र साहित्य विद्या के रूप में स्थापित हुआ। विद्या का सबंध रचना की आंतरिक प्रकृति, अंतर्वस्तु,रूप,बिंब और रचनाकार की मानसिकता आदि से प्रभावित होता है। रही बात विद्यात्मक स्वरूप की तो इसका कोई निश्चित और परिशुद्ध पैमाना नहीं है और तो इसके आकार के विषय में भी निश्चित प्रतिमान नही है। फिर भी इतना तो तय है कि लघु कथा आकार में कहानी से छोटी होती है।

लघुकथा विद्या के रूप में मान्यता मिलते ही कुछ लेखकों में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा तो कहीं क्षेत्रवादी भावना सक्रिय हो गई। कुछ विद्वानों ने भारतेन्दु हरिशचन्द्र की परिहासिनी 1875-1880 ई. को पहली लघुकथा संग्रह के रूप में हाथो-हाथ लिया जबकि परिहासिनी में संग्रहित रचना, केवल मित्रों द्वारा प्रेषित हास-परिहास से भरा पत्रों का संग्रह है। इसे हम लेखकीय कृति नहीं मानते। लघुकथा को साहित्यिक विद्या के रूप में स्थापित होने के लिए एक लंबा सफर तय करना पड़ा है।

कोई भी साहित्यिक विद्या ,रूप, शैली अचानक विकसित नहीं होती और न ही अभी अंतिम रूप धारण किया है। इक्कीसवीं सदी में जो लघुकथा का स्वरूप होगा वह अपने समय की आवश्यकताओं, दबावों और लेखकीय प्रयासों के अनुरूप नये-नये रूप धारण करती हुई आगे बढ़ेगी। लघुकथा अपने समय की सच्चाईयों का जीवन्त दस्तावेज होने के साथ ही अपनी स्वतंत्र शैली भी विकसित की है। संक्षिप्त यात्रा के बीच लघुकथा पूरे विश्व में पढ़ी जाने वाली पंसदीदा साहित्य है। आकार में संक्षिप्त होने के साथ पूरी कथा अपने निर्णय अंतिम छोर तक पहुंचाती है। मशीनी युग में प्रत्येक व्यक्ति के पास समयाभाव है ऐसे समय में लघुकथा मांग की पूर्ति करती है। सशक्त भाषा, सरल शैली से गंभीर चिंतन देती है। पारंपरिक तत्व निर्वाह के बंधनों से मुक्त, शब्दों की संख्या को ध्यान में रखते हुए संवेदना और सम्प्रेषण में कसावट लघुकथा का महत्वपूर्ण कला पक्ष है।

आकार में लघुकथा संक्षिप्त होती है और शीघ्र किसी निर्णय पर पहुंचती है, इधर समकालीन हिन्दी कहानी को लेकर विगत दो-तीन दशकों में काफी विचार विमर्श हुआ है। फिर भी किसी ऐसी केंद्रीय दृष्टि का विकास अब तक नहीं हो पाया, जिसके आधार पर समकालीन कहानी को उसके वास्तविक रूप में परिभाषित किया जा सके। कहानी, नयी कहानी, समकालीन हिन्दी कहानी को तथा कथित आंदोलनों और नारों में उलझाकर विस्मृत कर दिया गया । उसका खामियाजा आज भी हिन्दी कहानी को भुगतना पड़ रहा है। किंतु लघुकथा में ऐसी कोई केंद्रीय दृष्टि की आवश्यकता नहीं पड़ी है। स्पष्ट है कि मारक तत्व ही लघुकथा का केंद्रीय आधार है और वही एक मात्र परिभाषा भी।

लघुकथा जीवन सादृश्यता को पाने के लिए सचेष्ट रहने वाली परिवेश की स्थूलता को साथ लेकर चलने लगी। इस कारण कुछ लघुकथाकारों ने यह सोच लिया कि लघुकथा तो कहानी का ही सरलीकरण है। इस सरलीकरण के चलते सैकड़ों खतरे लघुकथा पर मंडराने लगी। सरलीकरण का आरोपण का मुद्दा बरसों से है। लघुकथा के विकास और विचारधारा के बौद्धिक आत्मसाती करण का तथ्य सहवर्ती होकर चले हैं इसलिए लघुकथाकारों की बहुत बड़ी पीढ़ी को एकदम बनी बनाई सांचा मिल गया। सामयिक जो है, आंखों के सामने कथावस्तु के एकाएक उपलब्ध हो जाने का प्रलोभन बुरी तरह जकड़े रहा। दोनों के बीच जबरदस्त आवाजाही रही, इतनी कि इस बीच फुहड़,सपाट बयानी और निस्तेज किस्म की ढेरों लघुकथाएँ अस्तित्व में आई। यह थोक उत्पादन छटाई के संकट को सामने रखता, वहाँ तक तो ठीक था, पर इस स्थिति में उसी-उसी अनुभव से गुजरने की उब और विरसता भी पैदा की । जो लघुकथा के बहुलांश को पढ़े जाने के विरूद्ध दिखता है। यूं नये बनते पाठकों के लिए सपाट भाषा और सरलीकरण से बनते ये फार्मूले सुविधाजनक तो रहा किंतु लघुकथा विद्या कीसमझ, गंभीरता और संस्कार का दायरा उसमें विस्तृत नहीं हो पाया। यह तो उनके लिए आकर्षण और प्रलोभन की ही स्थिति थी। ऐसी स्थिति में समूहगत लेखकों ने प्रगतिवाद, जनवाद जैसे रचना मंशा का स्वरूप भी रखा। जबकि वे भूल गए कि लघुकथा सदैव आम पाठकों का ही हिमायती है, उसकी संवेदना का जल उधर ही बहता है।

1971 से 1980 तक का समय लघुकथा के लिए महत्वपूर्ण रहा है। इस काल में लघुकथा के विकास में अभूतपूर्व विकास हुआ। लघुकथाओं की बाढ़ सी आ गई। इस भीड़ में अच्छी व श्रेष्ठ रचनाओं के बीच कुछ हल्दी रचनाएं भी सम्मिलित हो गई। जो संवादहीन, क्षणिकाएँ एवं चुटकुले ही साकित हुए। बढ़ती हुई महँगाई, भूख गरीबी, रिश्वतखोरी और जमाखोरी के सामने जन-मानस में कुछ नहीं कर पाने की विवशता तथा बेचैनी थी।

इस कारण वह अभिव्यक्ति की छटपटाहट लिए हुए एक माध्यम की तलाश मेें था। वहीं लघुकथा के रूप में युवा पीढ़ी के आक्रोश को अभिव्यक्ति का माध्यम मिल गया। इस पुनर्स्थापना काल में लघुकथा आक्रोश और विरोध की प्रवृत्ति को लेकर सामने आयी। इस प्रकार आठवें दशक में लघुकथा तेजी से सामने आने का मुख्य कारण युगीन वातावरण था।
इस अवधि में लघुकथा की पुनर्स्थापना को किसी आंदोलन की उपज कहना उचित नहीं होगा। किसी आंदोलन के लिए कम-से-कम एक व्यक्ति के विशेष प्रयास तथा एक केंद्रीय पत्रिका का होना आवश्यक होता है, जो उसे उभार सके। किंतु लघुकथा- क्षेत्र में ऐसा कुछ नहीं था यदि कहना ही हो तो इसे सहज- स्फूर्त आंदोलन कह सकते हैं। इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं कि जून 1972 से मई 1973 तक के एक के वर्ष के समय पाँच हिंदी भाषी राज्यों से छह पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांक सामने आये। इनमें मध्यप्रदेश से अर्न्तयात्रा(भोपाल), राजस्थान से अतिरिक्त (रावतभाटा), और पवित्रा (ब्यावर),उत्तरप्रदेश से मिनीयुग (गाजियाबाद), हरियाण से दीपशिखा (हरियाणा)तथा पंजाब से प्रयास (दोआबा) आदि पत्रिकाएँ सम्मिलित हैं। ये सभी पत्रिकाएँ अव्यावसायिक थीं। इनके तुरंत बाद कमलेश्वर ने जून 1973 में और फिर जुलाई 1975 में सारिका के लघुकथा विशेषांक निकाले। इनके माध्यम से युवा आक्रोश और छटपटाहट को खुलकर बरसने का अवसर मिला, जो अबोध मूसलाधार में बदल गया। इन दोनों में व्यंग्य का स्वर प्रधान था।

यही वह समय था, जब विभिन्न समाचार पत्रों व्यावसायिक और साहित्यिक पत्रिकाओं ने लघुकथा को हाथों - हाथ लिया। जन-साधारण में इसके पाठकों व प्रशंसकों की संख्या तीव्र गति से बढ़ने लगी। नये-नये लेखक शामिल होते गये। लघुकथा विशेषांक और संग्रहों का देश -भर में जाल सा फैल गया। 1974 में भगीरथ व रमेश जैन के संपादन में गुफाओं से मैदान की ओर रमेश बतरा द्वारा तारिका (अम्बाला) तथा जगदीश कश्यप व महावीर प्रसाद जैन द्वारा समग्र 1977(दिल्ली) पत्रिका के विशेषांकों ने लघुकथा की दो धाराओं को स्पष्ट कर दिया। एक धारा सतही वर्णनों को उत्तेजना के साथ उकेरती थी, जिसका प्रतिनिधित्व सारिका कर रही थी। दूसरी धारा युगीन सामाजिक यथार्थ को व्यक्त करने की बैचेनी के साथ उसे कलात्मक यथार्थ में परिणत करने का संयम दिखा रही थी। किंतु सारिका की व्यावसायिकता व लोकप्रियता ने पहली धारा को बेतरह फैलाव दिया। इसलिए दूसरी धारा को फैलने में कुछ अधिक समय लगा। सतही और उबाऊ वर्णनों वाली तथाकथित रचनाएँ अपनी गैर- जिम्मेवारी के कारण तीखी आलोचना का शिकार होने लगी। इसमें कुछ भी गलत नहीं था। ज्ञानरंजन,राजेन्द्र यादव, गोविन्द मिश्र, मृणाल पांडे आदि विभिन्न स्थापित कथाकारों से लेकर अनेक आलोचकों तक ने इसकी विविध कमजोरियों को गिनाया। इनकी टिप्पणियाँ तर्कसंगत थीं, सन् 1972 से 2000 की अवधि में विभिन्न पत्रिकाओं के कुल एक सौ से अधिक विशेषांक निकाले गये। ऊपर उल्लिलिखत विशेषांकों के अतिरिक्त कथा-विंब लहर वर्तमान जनगाथा, दिशा, संबोधन,वर्ष वैभव, समीचीन, साहित्य निर्झर, नवतारा आदि पत्रिकाओं के विशेषांकों ने लघुकथा की तस्वीर स्पष्ट करने में प्रमुख भूमिका निभायी।

जगदीश कश्यप ने सन् 1972 से मिनी युग के माध्यम से लघुकथा साहित्य को सामने लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। बाद में इसका संपादन बलराम अग्रवाल व सुकेश साहनी ने संभाला। लघुकथा को विक्रम सोनी ने लघु आघात पत्रिका के द्वारा स्थायित्व दिया। लघुकथा को समर्पित यह पत्रिका लगभग पूरे नवें दशक में निकलती रही। इस त्रैमासिक पत्रिका के कुछ आंरभिक अंग आघात नाम से निकले थे।

अशोक जैन ने लघु समाचार-पत्र के आकार की पत्रिका दृष्टि के कुछ अंक निकालकर स्तरीय रचनाओं को सामने लाने में महत्वपूर्ण योग दिया। 1980 में डॉ.राजेन्द्र सोनी ने पहचान बुलेटिन के माध्यम से रचनाकारों, लघुकथा कारों को प्रोत्साहित किया। पश्चात 1984 से पहचान-यात्रा नाम से साप्ताहिक एवं त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन हुआ। पहचान-यात्रा के अंकों में लघुकथाओं का समावेश ज्यादा से ज्यादा होता था। चार अंक लघुकथा अंक के रूप में प्रकाशित हुआ था। पहचान यात्रा- विगत चौबीस वर्षो से निरंतर आज भी छप रही है।

तरूण जैन ने आगमन त्रैमासिक के कुछ अंक निकाले। सतीश राज पुष्करण ने 1986 से 1988 तक दिशा पत्रिका निकाली, जिसका दूसरा (लघुकथांक)
रचनाओं के कारण अधिक महत्वपूर्ण था। बलराम अग्रवाल ने वर्तमान जनगाथा त्रैमासिक में मुख्यत: लघुकथा के क्षेत्र में गंभीर रचनाओं को प्रकाशित किया। पत्रिका 1993 से 1996 तक प्रकाशित हुई। अब उपरोक्त पत्रिकाएं काल-कवलित हो चुकी है। आज अधिकांश समाचार- पत्र और पत्रिकाएँ लघुकथा की रचनात्मक क्षमता को पहचान कर उसे फिलर की अपेक्षा गारिमापूर्ण ढंग से प्रकाशित कर रही है। इनमें कथादेश हंस , वागर्थ, कथा - क्रम , उद्भावना, कथा-बिंब पहचान-यात्रा जैसी पत्रिकाएँ उल्लेखनीय है। 1974 से ही अनेक लघुकथा संकलन प्रकाशित होते आ रहे हैं। (1976-2000) में प्रमुख रचनाकारों के अधिक महत्वपूर्ण संपादित संकलन निम्लिखित है।

1. गुफाओं से मैदान की ओर (भगीरथ, रमेश जैन)1974
2.अंतर्राष्ट्रीय लघुकथाएं कन्हैया लाल नंदन 1974
3.श्रेष्ठ लघुकथाएं-शंकर पूर्ण ताम्बेकर 1977
4.छोटी बड़ी बातें-जगदीश कश्यप, महावीर जैन 1978
5.समग्र-महावीर प्रसाद जैन ,जगदीश कश्यप 1978
6. आठवें दशक की लघुकथाएं (डॉ. सतीश दुबे)1979
7.समानांतर लघुकथाएं -नर्मदा प्रसाद उपाध्याय,नरेन्द्र मौर्य 1979
8.तनी हुई मुठ्ठियां-मधुदीप,मधुकांत 1980
9.रानी माँ-रामचन्द्र मालवीय, ओम ज्योति 1980
10. बिखरे संदर्भ-सतीशराज पुष्करणा 1981
11.बोलते हासिये-राजानरेन्द्र 1981
12.हालात-डॉ. कमल चौपड़ा 1981
13. अक्षरों का विद्रोह-सुशील राजेश 1981
14. जख्मों के गवाह- पृथ्वीनाथ पाण्डेय 1981
15. अक्षरों का विद्रोह (सुशील राजेश)1981
16. ताकि सनत रहे-रामनिवास मानव,दर्शन दीप 1982
17.कितनी आवजें-विकेश निझावन,हीरालाल नागर 1982
18.हस्ताक्षर-शमीम शर्मा 1982
19. उपहार-अजय सिंह परिहार 1982
20.प्रेरणा- नंदकिशोर पारिक नंद 1982
21.सर्जना- कृष्णानंद कृष्ण 1982
22.स्वरों का आक्रोश-हरनाम शर्मा 1982
23.सबूत- दर- सबूत महेन्द्र सिंह महलान,महेश योगी 1982
24. मानचित्र (विक्रम सोनी)1983
25. आतंक-धीरेन्द्र शर्मा,नंदल हितैशी 1983
26.नवें दशक की लघुकथाएं डॉ.राजेन्द्र सोनी ,मोइनुद्दीन अतहर1983
27.नयी धरती नये बीज-अमरनाथ चौधरी अब्ज 1983
28.आपकी कृपा है -विष्णु प्रभाकर 1983
29. प्रतिवाद(कमल चोपड़ा)1984
30.अनकहे कथ्य (अशोक वर्मा)1984
31.तीसरी ऑंख-सूर्यकांत नागर, गजानंद देशमुख 1984
32.व्यंग्य ही व्यंग्य- डॉ.बालेन्दु शेखर तिवारी 1984
33.तीसरा क्षितिज(सतीश राठी)1986
34. पड़ाव और पड़ताल(मधुदीप)1988
35. हरियाणा का लघुकथा संसार (रूप देवगुण,राजकुमार निजात)1988
36. सांझा हाशिया (कुमार नरेन्द्र)1990
37. अलाव फूँकते हुए (कुलदीप जैन)1990
38. महानगर की लघुकथाएँ (सुकेश साहनी)1993
इन सभी के संपादक लघुकथा लेखक थे।


लघुकथा संग्रह
सन् 1971 के बाद जिन प्रमुख लघुकथाकारों के महत्वपूर्ण लघुकथा संग्रह प्रकाशित हुए, उनकी सूची निम्नलिखित है-
1.नारायण लाल परमार-किसान का बेटा 1946
2. आनंद मोहन अवस्थी बंधनों की रक्षा 1950
3. आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र -ऐतिहासिक लघु कथाएं 1971
4. हरिशंकर परसाई- उल्टी सीधी 1971
5. आनंद मोहन अवस्थी- इंद्रधनुष का अंत 1971
6. बृजभूषण सिंह आदर्श -आंसू ओस और कब्र 1972
7. बृजभूषण सिंह आदर्श एवं शशांक आदर्श -दो धाराएं 1973
8. डॉ. सतीश दुबे-सिसकता उजास 1974
9.रामनारायण उपाध्याय -नया पंचतंत्र 1954
10. निराला जी-सखी 1974
11. कामता प्रसाद सिंह -नाविक के तीर 1974
12. कृष्ण कमलेश-मोह भंग 1975
13.चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य-बंगला से हिन्दी लघुकथाएं 1975
14.वैद्य शरद कुमार मिश्र शरद -निर्माण के अंकुर 1975
15. डॉ. सतीश दुबे-प्रेक्षागृह1975
16.डॉ. सतीश दुबे-भीड़ में खोया आदमी 1976
17.डॉ. श्रीराम ठाकुर दादा-अभिमन्यु का सत्याव्यूह 1977
18.शंकर पूणताम्बेकर-श्रेष्ठ लघुकथाएं 1977
19.दुर्गेश- कालपात्र 1979
20.सतीश राज पुष्करणा-वर्तमान के झरोखे से 1980
21.प्रोफेसर ईश्वर चंद-छोटाआदमी 1980
22. मनीष राय-अनावरण 1980
23. सनत मिश्र -एक और अभिमन्यु 1980
24. श्री राम मीना-नीम चढ़ी गुरवेल 1980
25. मुहम्मद मोइन्नुद्दीन अतहर -कांटे ही कांटे 1981
26. रविन्द्र खरे अकेला-तृप्ति 1981
27.डॉ स्वर्ण किरण-अपना पराया 1981
28.सुरेन्द्र आनंद-खोया हुआ वर्तमान 1981
29 सतीश राठी-शब्द साक्षी है 1981
30.चंद्रभूषण सिंह चंद्र-वनफूल 1981
31.भगवती प्रसाद द्धिवेदी-भविष्य का वर्तमान 1981
32.डॉ. रामसिया सिंह-मार्मिक लघुकथाएं 1981
33.डॉ योगेन्द्र शुक्ल-शपथ यात्रा 1982
34.पूरन मुद्गल- निरंतर इतिहास(1982)
35. सरोज द्धिवेदी-कलयुगी अमृत 1983
36.अमरनाथ चौधरी अब्ज-नये धरती नये बीज 1983
37.चंद्रभूषण सिंह चंद्र-मिट्टी की गंध 1984
38.डॉ सुरेन्द्र लाहा-प्रयास 1984
40.डॉ महेन्द्र कुमार ठाकुर-मैं कहता हूं आखिन देखी 1985
41.विष्णु प्रभाकर-कौन जीता कौन हारा (1989)
42.सतीश दुबे- भीड़ में खोया आदमी (1989),
43.अशोक भाटिया-जंगल में आदमी(1990)
44.पवन शर्मा- अपने-अपने दायरे (1990)
45.डॉ. कमल चोपड़ा अभिप्राय (1990)
46.सुकेश साहनी- डरे हुए लोग (1991)
47.बलराम-मृगजल 1992
48.सुरेन्द्र मंथन-घायल आदमी 1992
49.डॉ सतीश दुबे-राज भी लाचार है (1994)
50.बलराम अग्रवाल-सरसों के फूल (1994)
51.डॉ. आभा झा -रहन (1994)
52.बलराम - रूकी हुई हंसिनी (1995)
53.भगीरथ- पेट सबके हैं (1996)
54.पृथ्वीराज अरोड़ा-तीन न तेरह (1996)
55.मधुदीप-मेरी बात तेरी बात (1996)
56.महेश दर्पण-मिट्टी की औलाद (1997)
57.विष्णु नागर- ईश्वर की कहानियाँ (1998)
58.जगदीश कश्यप-कोहरे से गुजरते हुए(1998)
59. चैतन्य त्रिवेदी-उल्लास (2000)
60.डॉ.कमल चोपड़ा- सीटी वाला रबड़ का गुड्डा(2000)

एवं अन्य प्रकाशित संग्रहों में शैतान की चाल,कैक्ट्स,वर्तमान का सच-मोहम्मद मोइनुद्दीन अतहर, सौ लघुकथाएं- मीरा जैन,राई की ओट में -रमेश अस्थिवर, जंग लगी कीले-पवन शर्मा, गागर में सागर-अरविन्द नीमा,सरोकार-शैलेन्द्र पराशर,परसु-पारसदासोत, हजारों हजार बीज-भगवान वैद्य प्रखर, अनुवांशिकी-कुंवर प्रेमिल,आदि संग्रह देखने को मिलती है। लोक भाषा छत्तीसगढ़ी में डॉ राजेन्द्र सोनी द्वारा लिखित 1976,2000, खोरबहरा तोला गांधी बनाबो उल्लेखनीय है।
शोध प्रबंध

शकुंतला किरण (जोधपुर-राजस्थान) शमीम शर्मा-(सिरसा - कुरूक्षेत्र) अंजलि शर्मा (बिलासपुर छत्तीसगढ़) आभा झा (रायपुर-छत्तीसगढ़)रीता चौबे (साजा-छत्तीसगढ़) प्रमिला त्रिवेदी (इंदौर मध्यप्रदेश) भगवान दास कहार (बड़ौदा -गुजरात) हेमराज सगोतिया (मऊ-उत्तरप्रदेश) ज्योत्सना श्रीवास्तव (जबलपुर-मध्यप्रदेश)आदि है।
छत्तीसगढ़ अंचल से लघुकथाओं के सभी शोध कार्य डॉ. राजेन्द्र सोनी के सह- निर्देशन में हुई।

अनुवाद कार्य
रचनात्मक आदान-प्रदान ने हिंदी लघुकथा को नये क्षितिज प्रदान किए हैं। विश्व की प्रमुख भाषाओं के प्रमुख कथाकारों की लघुकथाएँ हिंदी में अनुदित व प्रकाशित होती रहती हैं। अत: रवीन्द्रनाथ टैगोर, खलील जिब्रान, लूशुन, मंटो जोगेन्दर पाल, वनफूल, विजयदान देथा जैसा रचनाकारों की रचनात्मकता से हिंदी कथाकारों का साक्षात्कार हुआ। भारतीय और विश्व लघुकथा कोश अनुवाद के माध्यम से ही प्रकाश में आ पाए।

इतर भाषाओं से हिंदी अनुवाद के अनेक स्वतंत्र कार्य हुए हैं। सतीश राज पुष्करणा ने मंटों की लघुकथाएँ डॉ. राजेन्द्र सोनी ने रूसी लघुकथाओं को छत्तीसगढी में , अशोक भाटिया ने श्रेष्ठ पंजाबी लघुकथाएं तथा सुकेश साहनी ने खलील जिब्रान की लघुकथाएं पुस्तक रूप में प्रस्तुत की है। बलराम अग्रवाल ने वर्तमान जनगाथा पत्रिका का मलयालम लघुकथा विशेषांक निकालकर अनुवाद का महत्वपूर्ण कार्य किया है। सुभाष नीरव भी इस दिशा में निरन्तर सक्रिय हैं।